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आस्था का अद्भुत आलोक: पांडादाह के मंदिर में कांधों पर निकलते हैं जगन्नाथ

सत्यमेव न्यूज अनुराग शाँति तुरे खैरागढ़. राजनांदगांव रियासत की राजधानी होने का गौरव समेटे हुये ग्राम पांडादाह की ऐतिहासिकता समृद्धशाली रही है लेकिन रियासतकाल में राजधानी के गौरव से भिन्न भगवान जगन्नाथ के ऐतिहासिक सरोकार रखने वाले प्रदेश के सबसे प्राचीन और पहले मंदिर होने के कारण पांडादाह की अलग ही पहचान रही है, यहां भगवान जगन्नाथ का मंदिर अविभाजित मध्यप्रदेश का पहला जगन्नाथ मंदिर है। पुरी स्थित प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ के मंदिर की तर्ज पर बने मंदिर की श्रद्धालुओं के बीच अलग महत्व है, यहां विवाह व संतान प्राप्ति की कामना को लेकर सदियों से श्रद्धालु अपना शीश नवाते आ रहे है।

मंदिर के निर्माण को लेकर पांडादाह के बुजुर्ग बताते है कि 1707 में कल्चुरी राजा के पराजित होने के बाद यहां भोसले राज में राजा बिंबाजी राव के शासनकाल मे कंबल बेचने महंत प्रहलाद दास के साथ भगवान श्री कृष्ण के भक्तों की टोली गांव पहुंची, जिन्हें ज्योतिष का समर्थ और सार्थक ज्ञान था। कृष्ण भक्तों की टोली को लेकर कई तरह की प्राचीन किवदंतिया है। पं. मिहिर झा बताते है कि कृष्ण भक्तों की टोली पूरे दिन काम के बाद रात मे भजन-कीर्तन किया करती थी, भक्तों के भजन इतने सुरमयी और भावभक्ति से ओतप्रोत होते थे कि सभी उनके भजनों से भाव विभोर हो जाते थे। इसकी जानकारी होने पर कृष्णभक्तों को पटरानी ने महंत सहित पूरी टोली को राजमहल बुलाकर राजकाज से जुड़ी समस्याओं का निदान कराया और आदेश दिया कि महंत की टोली जिस गांव में भी रात्रि विश्राम करेंगी वहां के निवासी खासतौर पर मालगुजार उन्हें दो रूपए दान देंगे, जिसके चलते महंत प्रहलाद दास के पास काफी रकम जमा हो गई जिससे उन्होंने मंदिर निर्माण शुरू कराया। उनकी मृत्यु उपरांत शिष्य हरिदास वारिस हुए। यहाँ पहले महंत हरि दास बैरागी (उड़ीसा के थे और तत्कालीन राजा के शिष्य) और बाद में यहाँ के गद्दीदार राजा हुये। महंत हरि दास बैरागी ने यहाँ राजनांदगांव और रियासत की राजधानी स्थापित की और किला भी बनवाया, जिसके कुछ अवशेष अभी भी यहाँ देखने को मिलते है। पांडादाह के समृद्धशाली इतिहास को लेकर पं.मिहिर झा बताते हैं कि महंत हरि दास बैरागी के बाद महंत घासी दास फिर बलराम दास, फिर दिग्विजय दास राजनांदगांव रियासत के राजा हुए जिनके नाम से ही सुप्रसिद्ध दिग्विजय महाविद्यालय स्थापित है। बताया जाता है कि महंत से राजनांदगांव रियासत के राजा बने बैरागी राजाओं को संतान विहीनता का श्राप था और ऐसी ही मान्यताओं के कारण यहां गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत गद्दी शिष्यों को मिलती गई। बताया गया कि हरिदास के महंत रहते यहाँ एक ब्राम्हण महिला जीराबाई ने अपनी 300 एकड़ जमीन मंदिर को दान कर दी जो अभी भी राजस्व रिकार्ड में ठाकुर जुगल किशोर मंदिर के नाम पर दर्ज है। इसके अलावा लगभग 200 एकड़ जमीन भी दान में मंदिर को मिली है। वर्तमान में जिसकी देखरेख राजनांदगांव स्थित रानी सूर्यमुखी देवी राजगामी संपदा कर रही है।

हर साल रथयात्रा में पुजारी भगवान को कंधे पर बिठाकर मंदिर की परिक्रमा कराते हैं। पांडादाह के जगन्नाथ मंदिर को लेकर एक कथा प्रचलित है कि महंत हरिदास को भगवान जगन्नाथ ने स्वप्न दिया कि उनकी मूर्ति को भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा सहित रथ की सवारी में नहीं बल्कि कांधे में बिठाकर मंदिर के भीतर ही परिक्रमा कराई जाए और मंदिर परिसर से बाहर नहीं निकाला जाए। तब से यहाँ भगवान जगन्नाथ भाई बहनो सहित कांधे में ही अरज दूज के दिन निकलते हैं। भगवान की कंधे में परिक्रमा को लेकर एक और कथा यहां प्रचलित है कि एक बार महंत बलराम दास के कार्यकाल में कोई ब्रिटिश अधिकारी ने ज़िद किया कि कांधे में नहीं भगवान को जगन्नाथ पुरी की तर्ज पर रथ में ही निकाले। ब्रिटिश अधिकारी की ज़िद के आगे महंत बलराम दास को झुकना पड़ा और अरज दूज को रथ यात्रा के दिन पांडादाह में पहली बार भगवान रथ में निकले लेकिन इसका परिणाम बहुत घातक हुआ। बताते हैं कि रथ यात्रा के दूसरे ही दिन उस ब्रिटिश अधिकारी की मौत हो गई जिसके चलते यहाँ के पुजारी भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और बलभद्र को कंधे पर बिठाकर मंदिर की पांच परिक्रमा करते हैं।

खैरागढ़ के सुरम्य वनांचल क्षेत्र में प्रकृति की गोद में बसे होने के कारण पांडादाह को पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने की तमाम संभवनाएं मौजूद है। यहाँ मंदिर के अलावा त्रिकोणिय कुआं, तालाब, संगमरमर में तराशी गई मूर्तियां, गांव की सरहद को छूती आमनेर नदी, पहाड़ पर विराजित सियारसुरी मंदिर, सांकरा का महामाया मंदिर दर्शनीय है। इतिहासकारों का मानना है कि महाभारत काल में पांडवों के विश्राम संबंधी तथ्यों के चलते कालांतर में गांव का नाम पांडवदाह था जो बाद में पांडादाह हो गया।

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