सत्यमेव न्यूज़/डोंगरगढ़ (चंद्रगिरि). शुक्रवार को दिगंबर जैन परंपरा के महान तपस्वी सन्त शिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज ने अपने अनमोल वचन में कहा कि जैनियो का धर्म बहुत कठिन है इसमें त्याग की महत्ता है. तीर्थ क्षेत्र चन्द्रगिरि डोंगरगढ़ में प्रतिदिन की तरह प्रातः काल 8:30 बजे संत शिरोमणि 108 आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के मंगल प्रवचन सन्त भवन के हाल में हुआ. आचार्य श्री ने कहा कि प्रायः सुनने में आता है कि जैनियों का धर्म बहुत कठिन होता है, ऐसा आप लोगो को भी सुनने को मिलता होगा. सही भी है, आयुर्वेद में लिखा है कि बादाम खाने से बुद्धि मिलती है और पिस्ता पिस पिस खाने से बुद्धि मिलती है. हम कहते हैं कि “ठोकर खाने से बुद्धि मिलती है.” जैन धर्म इसलिए कठिन है क्योंकि यहाँ त्याग को महत्त्व दिया गया है. एक प्रकार से बुद्धि मिलती है नमक न खाने से. इसलिए कहते हैं बड़े-बड़े जो ग्रन्थ है उन ग्रंथों में प्रवेश पाने के लिये आचार्यों ने श्रावकों को जागृत रहने के लिये कहा कि आप रसों से दूर रहिये. यदि आप अच्छा स्वास्थ्य चाहते हो तो चटक–मटक और बड़े–बड़े होटलों के नाम से जो आपके मुह में पानी आ जाता है उन सबसे दूर रहने की आवश्यकता है.
इन सबके सेवन से आँतों में पानी नहीं आएगा, उस पर भार बढ़ते जायेगा तो आंत कमजोर हो जाएगी. सर्वप्रथम जब बच्चा 6 माह का होता है तो उसे प्रायः विशेष रस नहीं दिया जाता है जबकि उसे दूध, शक्कर पानी, घी और गाय के दूध में थोडा पानी मिलाकर दिया जाता है जो सबसे अच्छा है. विषयों से बचिए और भीतरी प्रतिभा, चेतना के साथ जिसके पास बहुत उन्नति कि क्षमता विद्यमान है उस क्षमता को उद्दीप्त करना चाहोगे. तीखी बनाना चाहोगे, सार को ग्रहण करना चाहोगे तो निरंतर व्यसनों से दूर रहिय. सल्लेखना के लिये अनसन अनिवार्य है. अभी सारा खान – पान के ऊपर आयुर्वेद, मूलाचार खड़ा है. ऐषणा समिति, चार तप में भी रस का परित्याग, त्याग रहता है. परित्याग और त्याग में भी अंतर होता है. छोटे बच्चे से लेकर बूढ़े तक को स्वास्थ्य के हिसाब से थोडा–बहुत लिया करो कहते हैं तो वे थोडा को छोड़ देते हैं और बहुत ले लेते हैं. इससे उनके स्वास्थ्य में प्रभाव पड़ता है. इसलिए हम अब बहुत थोडा लिया करो कहते हैं. ठोकर खाने से बुद्धि आती है. मुनि महाराज के लिये ठोकर– आलस, रसों कि ओर नज़र रखना, कठिनाइयों से बचना आदि है.
दक्षिण में पचास-साठ हाथ नीचे पानी
आचार्य श्री ने कहा कि ट्यूब जिसे पाइप भी कहते हैं वेल मतलब कूप, यहाँ ट्यूबवेल करने के लिये 500 फीट खोदा जाता है और पानी की बूंद तक नहीं मिलती है. दक्षिण में कूप ही खोदा जाता है, वहाँ 50 से 60 हाथ निचे पानी मिलना प्रारंभ हो जाता है और कभी–कभी पाषाण खंड को चुरचुर कर पानी फौवारे की तरह बाहर आता है. साल भर पानी लबालब भरा रहता है. गर्मी में जब लू चलती है तब भी कूप का जल ठंडा रहता है. एक साथ तत्व हाँथ में नहीं आता इसके लिये प्रयास की आवश्यकता होती है.
रस, गन्ध, स्पर्श आत्मा का वैभव नहीं
आचार्य श्री ने आगे कहा कि रस गन्ध स्पर्श आत्मा का वैभव नहीं है, गुरूदेव ने अपने जीवन मे त्याग के बारे में बताते हुए कहा कि एक बार मैने गुरु जी से 1 माह का नमक त्याग का नियम लिया था फिर प्रत्येक दिन गिन–गिन कर निकलता था और 1 माह कब होगा यह विकल्प रहता था. जैसे ही एक माह हुआ मै गुरु जी के पास गया और कहा 1 माह नमक त्याग का अभ्यास हो गया लेकिन नंबर कम आया. बार–बार इसी का विकल्प रहता था फिर मैंने ठान लिया कि अब इसे जीवन पर्यन्त के लिये त्याग दूंगा जिससे सारा विकल्प ही समाप्त हो गया. क्योंकि ये सारे के सारे रस, गंध, स्पर्श, जन्म, मरण पुदगल का ही है. आत्मा इससे भिन्न है, ये रस, गंध, स्पर्श, जन्म, मरण आत्मा का वैभव नहीं है. जहाँ आत्मस्थ हो जाओ चेतना वहीँ खड़ी मिलेगी, यह शब्दातीत है. विद्यार्थी जब 16वी कक्षा पास कर शोध के लिये जाता है तो वह पूरे पुस्तक भंडार से अपने काम की पुस्तकों से शोध से सम्बंधित विषय को बहुत जल्दी-जल्दी पढ़कर खोज लेता है. यहाँ उसको ज्यादा पुरुषार्थ कि आवश्यकता नहीं पड़ती है. कुछ छात्र कहते हैं कि महाराज हमें कुछ याद नहीं होता. हमने कहा बहुत अच्छा है आपको कुछ स्मरण नहीं रहता है. सब भूल जाओ कौन आपका बैरी है, कौन आपका परम मित्र है, उसे सबसे पहले भूलो तभी सल्लेखना सफल होगी. आज आचार्य श्री को नवधा भक्ति पूर्वक आहार कराने का सौभाग्य ब्रह्मचारिणी नीता दीदी, मंजू दीदी, नीलम दीदी, प्रज्ञा दीदी, मीना दीदी, सुनीता दीदी ललितपुर (उ. प्र.) निवासी परिवार को प्राप्त हुआ.