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महिला दिवस पर विशेष: प्रेरक व्यक्तित्व- दृष्टिबाधा के बावजूद छात्रों के जीवन में रोशनी बिखेर रही पूर्णिमा

सत्यमेव न्यूज/खैरागढ़. खुद की क्षमता पर भरोसा और आत्मविश्वास हो तो व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन की बाधाओं को पार कर न केवल सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंच सकता है बल्कि दूसरों के लिए भी प्रेरक बन सकता है. खैरागढ़ के इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय में एक ऐसा व्यक्तित्व है जो भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणादाई बन चुका है. खैरागढ़ विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में बतौर सहा.प्राध्यापक पदस्थ डॉ.पूर्णिमा केलकर दृष्टिबाधा के बावजूद छात्रों के जीवन में रौशनी बिखेर रही है. 11 नवंबर 1973 को रायपुर के तत्यापारा में डॉ.मनीषा पाठक व स्व.विजय दत्तात्रेय पाठक के घर जन्मी पूर्णिमा जन्म से दृष्टि बाधित रही. परिजनों को इसकी जानकारी 4 माह बाद हुई. परिजन इस बात को लेकर व्यथित हुए और पूर्णिमा के आंखों के उपचार के लिए उपचार शुरू कराया गया. आखिरकार मुंबई के जे.जे. हॉस्पिटल में उनकी आंखों का ऑपरेशन हुआ, चूंकि पूर्णिमा की आंखों में जन्म से ही बड़ा मोतियाबिंद था और
ग्लूकोमा के हिस्से में पानी और खून जमा होने के कारण ऑपरेशन के बाद भी सफलता नहीं मिलने से तय हो गया कि महज 5 माह की पूर्णिमा को बिना आंखों के अंधत्व के बीच पूरी जिंदगी जीनी है, इस घनघोर अंधेरी निराशा के बीच माता-पिता सहित परिजनों ने तय किया कि भविष्य में कभी भी पूर्णिमा के मनोबल को गिरने नहीं देंगे. पिता मुंबई में इंजीनियर थे और माता रायपुर के संस्कृत महाविद्यालय में संस्कृत की प्राध्यापिका थी. रायपुर के शैलेंद्र नगर स्थित शास. अंधमूक बधिर विद्यालय जो वर्तमान में भाठा गांव में है से प्राथमिक शिक्षा शुरू हुई. अंधत्व और महिला होने के साथ सामाजिक विषमताओं और अपार चुनौतियों के बीच आगे मिडिल की पढ़ाई के लिए सामान्य बच्चों के साथ शास.दानी स्कूल में पूर्णिमा का दाखिला कराया गया.

अंधत्व से जूझ रही पूर्णिमा ने दिव्यांग होते हुए भी सामान्य छात्रों के साथ पूरी लगन से अपनी पढ़ाई जारी रखी और सतत शिक्षा को अपनी सफलता की सीढ़ी बनाई. 12वीं बोर्ड की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद पूर्णिमा ने शा.दूधाधारी महिला महाविद्यालय रायपुर से बीए और शा. दूधाधारी श्री वैष्णव (अब महंत राजेश्री) संस्कृत स्नातकोत्तर महाविद्यालय से एमए पास करने के बाद संगीत में रुचि होने के कारण बी.मुय्ज और एमए मुय्ज की भी परीक्षा उत्तीर्ण की. अब युवावस्था की दहलीज पर खड़ी पूर्णिमा के सामने व्यावसायिक जीवन की भी चुनौती सामने थी. संस्कृत में स्नातकोत्तर के बाद उन्होंने 1997 से संस्कृत महाविद्यालय रायपुर में संविदा शिक्षक के रूप में अपने शिक्षक की जीवन की शुरुआत की. चुनौतियों के बीच लगभग 10 वर्षों तक वह संविदा में कार्य करती रही इसी दौरान 1998 में पूर्णिमा ने पहली बार में नेट और जेआरएफ की परीक्षा उत्तीर्ण की और 2002 में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की. जीवन में आगे बढ़ाने और कुछ अलग करने की चाह में पूर्णिमा लगातार अध्ययन के क्षेत्र में आगे बढ़ती रही. 2003 में संस्कृत व्याकरण में एमए क्लासिक और 2005 में बीएड की परीक्षा भी उत्तीर्ण की. 2007 में उन्होंने केंद्रीय विद्यालय की परीक्षा उत्तीर्ण की वहीं खैरागढ़ विश्वविद्यालय में भी स.प्राध्यापक के पद के लिए साक्षात्कार दिया. दोनों ही जगह इनका चयन हुआ लेकिन चुनौतियां शेष थी.

केंद्रीय विद्यालय और खैरागढ़ विश्वविद्यालय में चयन को लेकर चुनौती काफी कड़ी साबित हुई. नई दिल्ली में केंद्रीय विद्यालय संगठन और खैरागढ़ विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी ने साक्षात्कार के दौरान पूर्णिमा के अंधत्व को अध्यापन कार्य के लिए बाधा माना. चूंकि विदुषी पूर्णिमा ने केंद्रीय विद्यालय संगठन की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था उन्हें रिजेक्ट करना आसान नहीं था, साक्षात्कार के बाद नियुक्ति मिली लेकिन पूर्णिमा इन चुनौतियों के बीच उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कुछ बेहतर करना चाहती थी इसलिए बेहतर विकल्प के रूप में खैरागढ़ विश्वविद्यालय में सेवा करने की ललक रही लेकिन चयन समिति की कार्यकारिणी में पदस्थ एक आईएएस अफसर ने उन्हें यह कहकर आपत्ति दर्ज कि के आंखों से दिव्यांग शिक्षिका कैसे बच्चों को पढ़ाएगी. इस बात की जानकारी होने के बाद विदुषी पूर्णिमा ने कार्यकारिणी की उस आईएएस अफसर से मिलने पहुंची और कहा कि आप मेरी क्षमता के आंकलन के बिना कैसे मुझे अयोग्य साबित कर सकती हैं. पूर्णिमा के मनोबल और अध्यापन की ललक देख आपत्ति खारिज हुई और अंततः खैरागढ़ विश्वविद्यालय में पूर्णिमा को बतौर स.प्राध्यापिका नियुक्ति मिली.

खैरागढ़ विश्वविद्यालय में प्राध्यापिका के रूप में विदुषी पूर्णिमा का शिक्षकीय जीवन अपार सफलताओं से भरा हैं. 2005 में तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा इन्हें संस्कृत के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए राष्ट्रपति भवन में महर्षि व्यास राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया गया हैं. 2009 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा नीलम कांगड़ा दिव्यंगता पुरस्कार से तत्कालीन डिप्टी सीएम छगन भुजबल ने उन्हें सम्मानित किया. तदुपरांत 2011 में केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा राष्ट्रपति के मुख्य आतिथ्य में राष्ट्रीय पुरस्कार से डॉ.पूर्णिमा को सम्मान मिला वहीं 2017 में छत्तीसगढ़ संस्कृत विद्या मंडलम द्वारा इन्हें कौशल्या सम्मान से सम्मानित किया गया.

बतौर प्राध्यापक डॉ.पूर्णिमा शोधपरक कार्यों में सतत सक्रिय रही है. उनके सानिध्य में अब तक 4 शोधार्थियों को पीएचडी अवार्ड हो चुका है और 2 शोधार्थी शोध का कार्य पूर्ण कर चुके हैं. विदुषी पूर्णिमा के सानिध्य और संयोजन में संस्कृत विषय पर खैरागढ़ विश्वविद्यालय में 2 राष्ट्रीय संगोष्ठियां हो चुकी है वहीं उन्होंने 20 से अधिक राष्ट्रीय संगोष्ठियों और 3 अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शिरकत की है और संस्कृत विषय पर उनकी 7 शोधपरक व पठनीय पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं.

विदुषी पूर्णिमा के जीवन में अंधत्व है पर यह संयोग ही है कि उनके जीवन में दीपक, दिवाकर और दीप्ति का साथ है. जीवनसाथी के रूप में उनके पति दीपक केलकर ने बीते 24 बर्षों से जीवन के हर उतार-चढ़ाव में उनके साथ दिया है. इनके दो बच्चे हैं, पुत्री का नाम दीप्ति और पुत्र का नाम दिवाकर है जो पूर्णिमा के विषम दिव्यांग जीवन को सुगम और सरल करते हैं.

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर साक्षात्कार के दौरान नवभारत से विशेष चर्चा करते हुए विदुषी पूर्णिमा ने नारी शक्ति को नमन करते हुए कहा कि हमें समाज की कमी नहीं निकालनी चाहिए, विषमता है हर युग में रहेंगी. आवश्यकता खुद पर भरोसा कर आगे बढ़ने की है. आज सुविधाओं का दौर है पहले ऐसा नहीं था. हमें विज्ञान और तकनीक को समझाना पड़ेगा. शिक्षित होना मात्र ही पर्याप्त नहीं है हमें इसका उपयोग कर समाज को कुछ लौटना भी है, तभी जीवन की सार्थकता साबित होगी. अगर किसी महिला के पास नौकरी नहीं है तो भी वह अपनी क्षमताओं को पहचान कर घर से ही सफलता की बुलंदियों तक पहुंच सकती है. हमें सहज लाभ लेने की प्रवृत्ति से दूर रहकर चुनौती को स्वीकार करना चाहिए, कर्तव्यनिष्ठा से बचने की कोशिश हमें असफल बनाती है.

Satyamev News

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