

राजपरिवार की ऐतिहासिक विरासत को संजोने शासन प्रशासन का भी ध्यान नहीं
सत्यमेव न्यूज खैरागढ़। नागवंशी राजाओं की रियासत से जुड़ी खैरागढ़ की ऐतिहासिक पहचान आज एक असहज और चौंकाने वाले सच से रू-ब-रू है। जिन शासकों ने इस छोटे से नगर को कला, संस्कृति और शिक्षा के वैश्विक मानचित्र पर स्थापित किया उन्हीं की स्मृति से जुड़ा इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय के ठीक पीछे मां दंतेश्वरी मंदिर के पास स्थित खैरागढ़ राज परिवार के कर्णधारों की समाधि स्थली आज बदहाली, गंदगी और उपेक्षा का बुरी तरह शिकार बन चुका है। आंकलन करें तो यह स्थिति केवल प्रशासनिक लापरवाही नहीं बल्कि अपने ही पूर्वजों की स्मृति के साथ किया गया अपमान भी प्रतीत हो रही है।
विरासत की जिम्मेदारी पूरी नहीं कर पा रहे वंशज
सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यह समाधि स्थल न तो नगर पालिका की संपत्ति है और न ही इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय के अधीन। यह सीधे तौर पर राजपरिवार की निजी संपत्ति है। ऐसे में इसकी देखरेख की नैतिक और कानूनी जिम्मेदारी भी स्वयं राजपरिवार पर ही आती है। बावजूद इसके वर्षों से यह स्थल उपेक्षा के हवाले छोड़ दिया गया है।
लगभग 300 साल पुरानी स्मृति, आज बदहाली की तस्वीर बयां कर रही

करीब तीन सौ साल पुराने इस समाधि स्थल की वर्तमान तस्वीर बेहद शर्मनाक है। परिसर में झाड़ियाँ उग आई हैं और कूड़े-कचरे के ढेर लगे हैं वहीं पास के एक होटल का गंदा पानी भीतर बह रहा है और हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि कुछ लोग इसे खुले शौचालय की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं। यह दृश्य न केवल ऐतिहासिक धरोहर का अपमान है बल्कि खैरागढ़ की सांस्कृतिक आत्मा पर भी आघात की तरह है।
रखरखाव को लेकर स्थानीय लोग उठा रहे सवाल
स्थानीय नागरिकों का आरोप है कि वर्तमान राजपरिवार सुविधाभोगी जीवन में व्यस्त है। महंगी गाड़ियाँ, शाही ठाठ-बाट और सार्वजनिक आयोजनों में उपस्थिति तो दिखाई देती है लेकिन पूर्वजों की समाधि के संरक्षण के लिए न कोई ठोस योजना बनाई गई है और न ही नियमित देखरेख और न ही कोई जवाबदेही तय की गई है। यही विरोधाभास अब शहर में चर्चा और आक्रोश का विषय बन गया है।
खैरागढ़ राज परिवार में रही है त्याग की परंपरा पर आज की विडंबना का दौर
खैरागढ़ राज परिवार में त्याग और दान की एक वैभवशाली परंपरा रही है पर आज विडंबना का दौर देखने को मिल रहा है। गौरतलब है कि इसी राजपरिवार ने कभी अपना राजमहल दान कर इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय की स्थापना कर त्याग और दूरदर्शिता की मिसाल पेश की थी लेकिन वही परंपरा आज कमजोर पड़ती दिख रही है। इसे लेकर सवाल सीधा और तीखा है कि क्या विरासत केवल नाम, रुतबे और इतिहास तक सीमित है या फिर उसके संरक्षण की जिम्मेदारी भी किसी की होती है?
प्रयास हुए, पर स्थायी समाधान नहीं
हालांकि लगभग एक वर्ष पहले खैरागढ़ में सामाजिक सरोकारों से जुड़ी संस्था- निर्मल त्रिवेणी अभियान के तहत समाधि स्थल का रंग-रोगन कर उसके पुराने वैभव को लौटाने का प्रयास किया गया था वहीं उससे कुछ वर्ष पहले पेशे से प्राध्यापक प्रोफेसर उज्जवला सिंह ने भी अपने पूर्वजों के समाधि स्थल का जीर्णोद्धार कराया था लेकिन वह प्रयास अब अस्थायी साबित हो गया है। बिना नियमित देखरेख और जिम्मेदारी के खैरागढ़ राज परिवार के महान विभूतियों का समाधि स्थल आज फिर से बदहाली की गाथा गा रहा है। ऐसे में यह मामला अब केवल एक बदहाल समाधि स्थल का नहीं रह गया है। यह खैरागढ़ की ऐतिहासिक गरिमा, सांस्कृतिक सम्मान और सामूहिक स्मृति से जुड़ा गंभीर प्रश्न बन चुका है। यदि समय रहते राजपरिवार ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई तो यह उपेक्षा आने वाले दिनों में बड़े सामाजिक और सार्वजनिक अपयश का रूप ले सकती है। बहरहाल अगर राज परिवार इस वैभवशाली स्थल को बेहतर नहीं कर पा रहा है तो क्या शासन प्रशासन की इस दिशा में कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती? और अगर कोई जिम्मेदारी बनती है तो जनता चाहती है कि विरासत को केवल याद न किया जाए उसे सचमुच संभाला भी जाये।